Chanakya Niti kavya anuvad Chapter 7

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धन के नाश को मन- संताप को, त्रिया चरित्र को वचन नीच को । स्व अपमान को विज्ञ जन जान को, नहीं है कहते, चुप ही रहते ।

धन-धान्य के लेनदेन में, विद्या संग्रह या भोजन में । व्यवहार में लाज त्याग दें, सुखी है बनते वे सब जन में ।

सुख शांति तृप्ति मिलते, संतुष्टि अमृत पीने में । वह सुख मिलता नहीं कदापि, धन पीछे व्याकुल जीने में ।

अपनी पत्नी अपना भोजन, व अपना धन इन तीनों में । पाता है संतुष्टि जोन रहता है सुख से जीवन में । इसके उल्टा दान, जप, अध्ययन इत्यादि इन तीनों में । संतोषी बनता, नहीं रहता है, सुख से अपने जीवन में ।

बैल हल व स्वामी सेवक के, विप्र द्वय के नर-नारी के, दो अग्नि के बीच नहीं जाएं, बुद्धिमान व्यक्ति कहलाएं ।

अग्नि, गुरु, विप्र, गौ, वृद्ध को ” कन्या कुमारी, शिशु इन सब को । पैर से छूना धर्म नहीं है, श्रेष्ठ मनुज का कर्म नहीं है ।

गज से दूर हजार हाथ, 10 हाथ बैलगाड़ी से । हाथ सैकड़ा दूर अश्व से, त्याग देश शठ अनाड़ी से ।

विप्र आनंदित भोजन अन्न से, नाचे मयूर घन के गर्जन पे | सज्जन प्रसन्न पर धन पाने से, दुर्जन प्रसन्न पर दुख आने पे ।

गज अंकुश से दुष्ट खड्ग से, चाबुक से अश्व आते वश में। लाठी करता श्रृंगी पशु वश बिन भय प्रीत न आती कस में ।

व्यवहार अनुकूल शत्रु प्रबल से, प्रतिकूल शोभे दुर्जन अरि से । विनय से अथवा बल से जीतो, सामना हो गर तुल्य अरि से।

बांहू के बल नृप बली हो, विप्र बली है जो ब्रह्मज्ञानी । रूप यौवन और मधुरता, त्रिया बल की मूल कहानी ।

अति सरलता भी न मंगलमय कटता सीधा वृक्ष ही जंगल में । टेढ़ा वृक्ष नहीं काटे कोई, बनना सरल न कभी दंगल में ।

जल जहां है बसे हंस जाके, सूखे सरोवर छोड़े उगताके । जन जीवन नहीं हंस के जैसा, ग्राम जीवन नहीं बसता ऐसा ।

अर्जित धन की रक्षा व्यय है, बिन व्यय धन वह सड़ता वैसे । जिस सर में जल नया न भरता जल पहले का सड़ता जैसे ।

चार चिन्ह है अंतर करता, स्वर्ग लोक से जन्मे जो जन । दानशीलता, मधुमय वाणी, ब्राह्मण तृप्ति व देव पूजन ।

क्रोध भयंकर, कुलहीन सेवा, नीच की संगति, वैर स्वजन से । कर्कश वाणी, दीन घर जिनका, जन्में नर्क से लक्षण उनका ।

सिंह गुफा में जाने वाला, पाता है वह गजमुक्ता को । गीदड़ मांद में यात्री जाए, गधा चर्म बछड़ा पूंछ पाए ।

बिन विद्या का व्यर्थ है जीवन, पूंछ स्वान की रहती जैसे । नहीं गुदा को ढक सकती है, न मच्छर उड़ पाये उससे ।

वचन की शुद्धि, मन की शुद्धि संयम इंद्रियों का व शुद्धि । 1 दया जीवों पर शुद्धि की शुद्धि, परमार्थी की ए है सिद्धि ।

तिल में तेल, काठ में अग्नि, पय में घी, गुड़ ईख में जैसे । गंध पुष्प में रहता है ज्यों, आत्मा बुद्धि तन में वैसे ।

See also  अध्याय दो: चाणक्य नीति

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